राजा की रानी
इस संसार का सबसे बड़ा सत्य यह है कि मनुष्य को सदुपदेश देने से कोई फायदा नहीं होता- सत्-परामर्श पर कोई जरा भी ध्या न नहीं देता। लेकिन चूँकि यह सत्य है, इसलिए दैवात् इसका व्यतिक्रम भी होता है। इसकी एक घटना सुनाता हूँ।
बाबा ने दाँत निकालकर आशीर्वाद दिया और अत्यन्त प्रसन्नता के साथ प्रस्थान किया। पूँटू ने भी बहुत सारी पद-धूलि लेकर आदेश का पालन किया। पर उनके चले जाने के बाद मेरे परिताप की सीमा न रही। मन विद्रोही होकर सिर्फ तिरस्कार करने लगा कि ये कौन होते हैं जिन्हें विदेश में नौकरी कर अनेक कष्टों से संचित किया हुआ धन दे दोगे? सनकीपन में कुछ कह दिया तो क्या उसका यह मतलब है कि दाता कर्ण बनना ही पड़ेगा? न जाने कहाँ की इस लड़की ने बिना माँगे ही ट्रेन में पेड़े और दही खिलाकर मुझे तो अच्छा फन्दे में फाँसा! एक फन्दे को काटते हुए एक दूसरे फन्दे में फँस गया। बचने का उपाय सोचते हो दिमाग गर्म हो गया, और उस निरीह लड़की के प्रति क्रोध और विरक्ति की सीमा न रही। और यह शैतान बाबा! मनाने लगा कि वह अब घर न पहुँच सके, रास्ते में ही सर्दी-गर्मी से मर जाय। पर यह आशा भित्तिहीन है। अच्छी तरह जानता हूँ कि वह आदमी किसी तरह भी नहीं मरेगा और जब उसे मेरे मकान का पता एक बार चल गया है तो फिर आयेगा, तथा चाहे जैसे भी हो, रुपये वसूल करेगा। हो सकता है कि इस बार उन्हीं हाकिम फूफा महाशय को भी साथ लावे। एक ही उपाय है- य: पलायति स जीवति। टिकिट खरीदने गया, पर जहाज में स्थानाभाव- सब टिकिट पहले से ही बिक गये हैं। अत: दूसरी मेल का इनतजार करना होगा और उसमें अभी छह-सात दिन की देर है।
एक उपाय और है, कि मकान बदल दिया जाय, बाबा को खोजने पर भी न मिले। पर इतनी अच्छी जगह इतनी जल्दी कहाँ मिलेगी? किन्तु शिकारी के हाथों प्राण बचाने के सम्बन्ध में हालत ऐसी नाजुक हो गयी है कि अच्छे-बुरे का प्रश्न ही गौण है- यथारण्यं तथा गृहम्।
डर है कि मेरा गुप्त उद्वेग कहीं रतन की नज़रों में न आ जाय। पर मुश्किल तो यह है कि वह यहाँ से टलना ही नहीं चाहता। काशी की अपेक्षा उसे कलकत्ता ज्यादा पसन्द आ गया है। पूछा, “चिट्ठी का जवाब लेकर क्या तुम कल ही जाना चाहते हो, रतन?”
रतन ने फौरन ही जवाब दिया, “जी नहीं। आज दोपहर को मैंने माँ को एक पोस्ट कार्ड डाल दिया है कि लौटने में मुझे चार-पाँच दिन की देर होगी। मृत सोसायटी (=अजायबघर) और जीवित सोसायटी (=चिड़ियाखाना) बिना देखे नहीं जाऊँगा। अब फिर कब आना हो, इसका तो कोई ठिकाना नहीं।”
मैंने कहा, “पर वे तो उद्विग्न हो सकती हैं?”
“जी नहीं। लिख दिया है कि गाड़ी में लगे हुए धक्कों की थकान अभी तक दूर नहीं हुई है।”
“पर चिट्ठी का जवाब...”
“जी, दीजिए न। कल ही रजिस्ट्री से भेज दूँगा। उस मकान में माँ की चिट्ठी खोलने का साहस यम भी नहीं करेगा।”
चुपचाप बैठा रहा। नाई-बेटे के सामने एक भी तरकीब नहीं चली। सब प्रस्तावों को रद्द कर दिया।
जाते वक्त बाबा रुपयों की बात प्रचार कर गये थे। परन्तु कोई इस बात का भ्रम न कर ले कि उन्होंने हृदय की उदारता या अधिक सरलता के कारण ऐसा किया हो। वे तो ऐसा करके गवाह बना गये हैं!
रतन ने ठीक इसी बात का अन्दाज लगाया। कहा, “बाबू, अगर आप नाराज़ न हों तो एक बात कहूँ।”
“क्या बात रतन?”